
आयुर्वेद में दही को गरम क्यों कहा गया है? लोग तो दही को ठंडा समझते हैं?
दही की तासीर गर्म है। इसमें लैक्टोबैसिलस नामक एन्जाइम होता है। कोई भी एन्जाइम शरीर में जाकर रासायनिक प्रतिक्रिया करते हैं। इससे गर्मी तो उत्पन्न होगी ही। तासीर यानि असर, प्रभाव, गुण।
पाचन के बाद किसी द्रव्य का शरीर पर जो असर होता है उसे उसकी तासीर या आयुर्वेद में वीर्य कहते हैं। स्पष्ट है यह गरमी उत्पन्न करेगा। अतः उष्णवीर्य है।
इस सवाल के पूछने का वजह यह लगता है कि किस अवस्था में दही लाभ करेगा, कब हानि ! सेवन के बाद व पूर्ण पचने तक दही अम्लीय है। अतः कफवर्धक है। इस अवधि में यह ठंढा हुआ। सूजन, बुखार हो तब सेवन न करें। पीलिया, रक्तपित्त ( bleeding disorders) हो तब भी नहीं। मोटापा, कोलेस्ट्रॉल, एसिडिटी हो तब भी नहीं। जोड़ों का दर्द हो , न खायें। ऋतु अनुसार दही साल में छः महीने न खायें –
वसंत – चैत्र, बैशाख
ग्रीष्म- जेठ, आषाढ़
शरद् – आश्विन, कार्तिक
सामान्य जन में दही के प्रति यह धारणा होती है कि दही शीत होती है परंतु वास्तविकता यह है कि दही ‘ऊष्ण’ होता है। यह धारण इसलिए व्याप्त है कि दही कफ को बढ़ाता है एवं अभिष्यंदी होने से जुकाम आदि के लक्षण शरीर में उत्पन्न हो जाते हैं। अभिष्यंद गुण/ कर्म, शरीर के स्रोतों (चेनल्स) धमनी आदि में अवरोध उत्पन्न करता है।
ऊष्ण होने के कारण इसे ऊष्ण ऋतुओं में सेवन नहीं करना बताया है परंतु प्रायः सर्वजन इसका प्रयोग ग्रीष्म ऋतु में करते हैं। यदि ग्रीष्म ऋतु में प्रयोग करना भी है तो उसमें शक्कर आदि पदार्थ या आयुर्वेद में बताए पदार्थों को डालकर सेवन करना चाहिए या संस्कार करके प्रयोग करना चाहिए।लस्सी बनाना संस्कार करना कहलाता है। यानि गर्मी में लस्सी पीयें।
दही के सामान्य कर्म- शरीर के बल को बढ़ाने वाला, कृश एवं दुर्बल व्यक्तियों के लिए उत्तम । दही का प्रयोग हेमंत, शिशिर एवं वर्षा ऋतु में करना चाहिए।
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