करतारपुर साहिब भारत में क्यों नहीं है ?

पकिस्तान में स्थित भारत और पाकिस्तान की सीमा से सटी एक ऐतिहासिक और धार्मिक धरोहर — करतारपुर साहिब गुरुद्वारा — भारतीय श्रद्धालुओं के हृदय के अत्यंत समीप है पर यह करतारपुर साहिब भारत में क्यों नहीं है ?

इस प्रश्न का उत्तर हमें इतिहास की उन गलियों में ले जाता है जहाँ वर्ष 1947 का विभाजन, राजनीतिक निर्णय और धार्मिक स्थलों की अनदेखी शामिल है।

करतारपुर साहिब का धार्मिक महत्व

करतारपुर साहिब वह स्थान है जहाँ सिख धर्म के प्रथम गुरु, श्री गुरु नानक देव जी ने अपने जीवन के अंतिम 18 वर्ष बिताए। यहीं पर उन्होंने अपने जीवन का अंतिम उपदेश दिया और यहीं 1539 में उन्होंने देह त्यागी। यह गुरुद्वारा, दरबार साहिब करतारपुर के नाम से जाना जाता है और यह स्थल सिखों के लिए तीर्थ से कम नहीं है।

करतारपुर साहिब सिर्फ एक गुरुद्वारा नहीं, बल्कि वह स्थल है जहाँ गुरु नानक देव जी ने अपने जीवन के अंतिम 18 वर्ष बिताए। यहां उन्होंने खेती की, संगत की और धर्म के गूढ़ रहस्य सिखों को समझाए। यह स्थान सिख श्रद्धालुओं के लिए वैसा ही है जैसे मक्का-मदीना मुसलमानों के लिए या काशी हिन्दुओं के लिए। दुर्भाग्यवश, सीमा विभाजन की रेखा खींचने वालों ने धार्मिक और सांस्कृतिक भावनाओं का कोई ख्याल नहीं रखा, जिससे आज भारत के करोड़ों सिखों को अपने सबसे पवित्र स्थल के दर्शन के लिए विदेशी ज़मीन पर जाना पड़ता है।

इतिहास की एक निर्णायक रेखा: रैडक्लिफ़ लाइन

जब भारत का विभाजन 1947 में हुआ, तब जिसने कभी भारत देखा नहीं  उस साइरिल रैडक्लिफ़ द्वारा खींची गई सीमा रेखा ने तय किया कि कौन-सा इलाका भारत में होगा और कौन-सा पाकिस्तान में। यह रेखा मुख्यतः जनसंख्या के धार्मिक आधार पर बनाई गई, लेकिन दुर्भाग्यवश इसमें कई धार्मिक और सांस्कृतिक स्थलों की महत्ता को दरकिनार कर दिया गया।

करतारपुर गुरुद्वारा भारत के गुरदासपुर ज़िले में स्थित डेरा बाबा नानक से महज़ तीन किलोमीटर की दूरी पर था, लेकिन रैडक्लिफ़ लाइन के अनुसार यह पाकिस्तान के नारोवाल ज़िले में चला गया। इस तरह एक पवित्र स्थल भारत से अलग हो गया, जबकि इसके दर्शनों की तड़प भारतीय श्रद्धालुओं के दिल में आज भी बनी हुई है।

करतारपुर कॉरिडोर: आस्था की एक नई राह

भारत और पाकिस्तान के संबंधों में तमाम उतार-चढ़ावों के बावजूद, करतारपुर कॉरिडोर का निर्माण एक ऐतिहासिक कदम था। करतारपुर साहिब कॉरिडोर का आरंभिक प्रस्ताव वर्ष 1999 में भारत और पाकिस्तान के प्रधानमंत्रियों की ऐतिहासिक मुलाकात के दौरान आया था। इसकी शुरुआत 9 नवंबर 2019 को हुई। इसके माध्यम से भारत के सिख श्रद्धालु बिना वीज़ा के, सिर्फ एक परमिट के आधार पर, करतारपुर साहिब के दर्शन कर सकते हैं।

यह कॉरिडोर पंजाब के डेरा बाबा नानक से शुरू होकर पाकिस्तान के करतारपुर साहिब तक जाता है, और एक पुल द्वारा भारत और पाकिस्तान को जोड़ता है। इससे न केवल सिख समुदाय को धार्मिक संतोष मिला, बल्कि यह दोनों देशों के बीच विश्वास की एक नई नींव भी बनी।

क्या करतारपुर साहिब को भारत में शामिल किया जा सकता था?

यह एक भावनात्मक प्रश्न है। विभाजन के समय अगर धार्मिक स्थलों की स्थिति को अधिक महत्व दिया गया होता, तो शायद करतारपुर भारत में होता। लेकिन तत्कालीन राजनीतिक और प्रशासनिक परिस्थितियाँ ऐसी थीं कि यह संभव नहीं हो सका।

निष्कर्ष: दूरी सिर्फ भौगोलिक है, भावना नहीं

भले ही करतारपुर साहिब आज पाकिस्तान में स्थित है, लेकिन भारतीय श्रद्धालुओं की आस्था और प्रेम इसकी सीमाओं से कहीं ऊपर है। करतारपुर कॉरिडोर ने भले ही इस दूरी को थोड़ा पाट दिया हो, लेकिन इसके ऐतिहासिक और धार्मिक भाव हमेशा भारत की आत्मा से जुड़े रहेंगे। इस मुद्दे पर स्थायी समाधान की आवश्यकता है, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ अपनी आस्था को किसी सीमा की बाधा के बिना अनुभव कर सकें।

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