अहिंसा परमो धर्मः’ का मूल स्रोत एवं ‘धर्म हिंसा तथैव च’ की प्रामाणिकता

1. मूल उद्धरण का स्रोत

  • अहिंसा परमो धर्मः” का मूल स्रोत महाभारत है। यह उक्ति महाभारत के निम्नलिखित अंशों में पाई जाती है:
  • अनुशासन पर्व (13.117.37): भीष्म पितामह युधिष्ठिर को उपदेश देते हुए कहते हैं: "अहिंसा परमो धर्मस्तथाहिंसा परो दमः। अहिंसा परमं दानमहिंसा परमं तपः॥" (अर्थ: अहिंसा सर्वोच्च धर्म है, अहिंसा सर्वोत्तम संयम है, अहिंसा सबसे बड़ा दान है, अहिंसा सबसे बड़ा तप है।)
  • शांति पर्व (261.20) और वन पर्व में भी इसी भाव के श्लोक मिलते हैं।
  • भावार्थ: यह उक्ति हिंदू, जैन एवं बौद्ध दर्शन में अहिंसा के सिद्धांत को प्रमुखता देती है। महात्मा गांधी ने भी इसे अपने अहिंसा आंदोलन का आधार बनाया।

2. “धर्म हिंसा तथैव च” की प्रामाणिकता

  • यह पंक्ति मूल महाभारत या किसी प्राचीन ग्रंथ में नहीं मिलती। यह एक बाद में जोड़ा गया संदर्भ है, जिसे कुछ आधुनिक व्याख्याओं या राजनीतिक/सामाजिक संदर्भों में प्रस्तुत किया गया है।
  • तर्क एवं विद्वानों के मत:
    • विरोधाभास: “अहिंसा परमो धर्मः” और “धर्म हिंसा तथैव च” एक-दूसरे के विपरीत हैं। महाभारत में अहिंसा को परम धर्म कहा गया है, लेकिन हिंसा को धर्म का हिस्सा नहीं बताया गया।
    • ऐतिहासिक संदर्भ:
      • महाभारत में धर्मयुद्ध (कुरुक्षेत्र) का विचार है, जहाँ हिंसा को अंतिम उपाय के रूप में स्वीकार किया गया है, लेकिन इसे “धर्म हिंसा” की संज्ञा नहीं दी गई।
      • भगवद्गीता (2.31-38) में कृष्ण अर्जुन को स्वधर्म (क्षत्रिय धर्म) के लिए युद्ध करने को कहते हैं, परंतु यह “हिंसा को धर्म” कहने के बजाय कर्तव्य-बोध पर आधारित है।
    • आधुनिक जोड़: यह पंक्ति संभवतः 19वीं-20वीं सदी में हिंदू दर्शन की व्याख्या करते समय जोड़ी गई, जिसमें धर्म की रक्षा के लिए हिंसा को उचित ठहराने का प्रयास हुआ।

3. निष्कर्ष

  • मूल उद्धरण: “अहिंसा परमो धर्मः” महाभारत से है और यह हिंदू दर्शन का मूल सिद्धांत है।
  • जोड़ी गई पंक्ति: “धर्म हिंसा तथैव च” मनगढ़ंत है। यह किसी प्रामाणिक ग्रंथ का हिस्सा नहीं, बल्कि कुछ विशिष्ट संदर्भों में की गई व्याख्या है।
  • सावधानी: किसी भी उद्धरण को प्रामाणिक मानने से पहले मूल ग्रंथ (जैसे महाभारत, मनुस्मृति, या उपनिषद) से सत्यापन आवश्यक है।
  • धर्मयुद्ध का शाब्दिक अर्थ है ‘धर्म के लिए युद्ध’ या ‘न्यायपूर्ण युद्ध’। यह एक ऐसा संघर्ष है जो किसी धार्मिक या नैतिक सिद्धांत की रक्षा, सत्य की स्थापना, या अन्याय के विरुद्ध लड़ा जाता है।
  • यह शब्द मुख्य रूप से भारतीय परंपरा, विशेषकर महाभारत के संदर्भ में प्रयोग होता है, जहाँ कुरुक्षेत्र का युद्ध धर्म और अधर्म के बीच का संघर्ष माना गया है। धर्मयुद्ध केवल धार्मिक आधार पर ही नहीं, बल्कि नैतिकता, न्याय और कर्तव्य के सिद्धांतों पर आधारित होता है।
  • धर्मयुद्ध के प्रमुख पहलू:
  • नैतिक औचित्य: धर्मयुद्ध का मूल आधार यह है कि इसे किसी बड़े नैतिक या धार्मिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए लड़ा जाए, न कि व्यक्तिगत लाभ, भूमि विस्तार या सत्ता के लिए।
  • अंतिम उपाय: इसे तब ही लड़ा जाता है जब शांतिपूर्ण समाधान के सभी रास्ते बंद हो जाते हैं। यह प्रथम विकल्प नहीं, बल्कि अंतिम सहारा होता है।
  • नियम और सीमाएँ: प्राचीन भारतीय ग्रंथों में धर्मयुद्ध के कुछ नियम भी बताए गए हैं, जैसे निहत्थे पर वार न करना, भागते हुए शत्रु को न मारना, या युद्धक्षेत्र से बाहर के नागरिकों को नुकसान न पहुँचाना। इन नियमों का उद्देश्य युद्ध में भी नैतिकता बनाए रखना था।
  • कर्तव्य का पालन: भगवद्गीता में भगवान कृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि एक क्षत्रिय होने के नाते उसका स्वधर्म (अपना कर्तव्य) धर्म की रक्षा के लिए युद्ध करना है। यह कर्तव्य-बोध भी धर्मयुद्ध का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।
    संक्षेप में, धर्मयुद्ध केवल हिंसा का कार्य नहीं है, बल्कि यह न्याय, नैतिकता और कर्तव्य की एक उच्च अवधारणा से जुड़ा हुआ है, जहाँ युद्ध को एक आवश्यक बुराई के रूप में देखा जाता है, जिसे केवल धर्म और सत्य की स्थापना के लिए ही अपनाया जा सकता है।

सुझाव:

  • यदि आप “अहिंसा परमो धर्मः” के संदर्भ को गहराई से समझना चाहते हैं, तो महाभारत के अनुशासन पर्व का अध्ययन करें
  • “धर्म हिंसा तथैव च” जैसे विवादास्पद उद्धरणों को आलोचनात्मक दृष्टि से देखें और प्रामाणिक स्रोतों से तुलना करें।

इस प्रकार, अहिंसा को परम धर्म मानने की मूल भावना ही प्रामाणिक है, न कि हिंसा को धर्म से जोड़ने का विचार।

सही क्या है? तिब्बत देश की दुर्गति सभी ने देखा। Biology में पढाते – सभी प्राणी के survival का Evolution Process में दो ही रास्ता बताया है – Fight or Flight. अहिंसा flight है, हिंसा Fight. जहां अहिंसा असहाय हो जाती है वहां से हिंसा का काम आरम्भ ही होता है। जब flight से जान न बचे तो fight का रास्ता ही अपनाना होता है। Theory of Evolution के अनुसार भी यह चुनाव तो प्राणिमात्र के Genetic Constitution में embeded है।

कोई सिखा गये – परिस्थितियां क्या थीं जिसमें यह सीख दिये यह भी तो देखना होगा। उपरोक्त विश्लेषण अहिंसा का संदेश देने हेतु नहीं पौराणिक संदर्भों का विश्लेषण हेतु लिखा हूं। ‘धर्म हिंसा तथैव च’ – यह जोङ कर बात खत्म करना तो shortcut method हुआ। भारतीय जनमानस इतनी भी मंदबुद्धि नहीं जो सच्चाई बताने पर सही विश्लेषण न कर पाये।


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